विविधता को समाप्त करने की साज़िश
भारत में विविधता के खिलाफ हमले में एक प्रमुख हथियार स्कूली शिक्षा है: आदिवासी बच्चों के लिए खोले गए कई शैक्षणिक संस्थाओं में उनसे उनकी आदिवासी पहचानों को छीनकर उन्हें 'मुख्यधारा में शामिल होने' के लिए तैयार एवं मजबूर किया जाता है।
उन्हें इन संस्थाओं में पढ़ाया एवं सीखाया जाता है कि उनके जीने के तौर-तरीके, उनकी भाषा, ज़मीन के साथ उनका संबंध ‘आदिकालीन’ ‘असभ्य’ और ‘पिछड़े’ है, उनकी सारी मान्यताएं एक अंधविश्वास है।
“वे हमारे आदिवासी बच्चों को हमसे दूर ले जा रहे हैं। वे उनके दिमाग और विवेक को पूरी तरह से बदल रहे हैं। यह हमें मारने जैसा है और हम इसकी कड़ी निंदा करते हैं।” पूर्णो जानी, आदिवासी नेता।
इन शैक्षणिक संस्थाओं में आदिवासी बच्चों को उनकी जड़ों से दूर करके उन्हें बताया जाता है कि जंगल काटकर खनन करना विकास के लिए आवश्यक है, उन्हें हिंदू धर्म में परिवर्तित किया जाता हैं, उनमे कॉर्पोरेट नौकरियों की इच्छा का सृजन किया जाता है और अपने जंगलों को छोड़कर शहर कि छद्म चकाचौंध का मोह दिया जाता हैं। एक स्कूल, कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ सोशियल साइन्स (KISS), यह दावा करती है कि उनके यहाँ “सामाजिक दायित्व (आदिवासी समाज) को सामाजिक संपत्ति और कर उपभोक्ताओं को करदाताओं में बदला जाता है।”
हम इन फैक्ट्री स्कूलों ’को समाप्त करने का आह्वान कर रहे हैं, जिनका उद्देश्य जीवंत, विविध आदिवासी बच्चों को अपनी जड़ों से दूर करना है और उन्हें मुख्य धारा के समाज के अनुरूप ढालना है। घर से दूर, यह बच्चे दुर्व्यवहार और उपेक्षा के उच्च जोखिम में जीते है। ये स्कूल आदिवासी पहचान को मिटाने और आदिवासी जमीनों को चुराने के लिए सरकारों द्वारा एक सुविचारित, दूरगामी नीति का हिस्सा हैं।
हम इस प्रताड़णा एवं पीड़ा को समाप्त करने और आदिवासी समुदायों को अपनी शिक्षा पर नियंत्रण बनाए रखने का आह्वान करते हैं। हमसे जुड़िये।
स्कूली शिक्षा और भूमि अधिकार
अडानी खनन कंपनी और विशाल कलिंग इंस्टीट्यूट फॉर सोशल साइंसेज के बीच नए संयुक्त उद्यम जैसे स्कूल खनन उद्योगों और भारत कीआदिवासी स्कूली शिक्षा के बीच घनिष्ठ संबंधों को प्रकट करते हैं।
समस्त भारत में, आदिवासी लोग अपनी ज़मीन और जंगलों को इन खनीज़ उत्खनन जैसी हानिकारक परियोजनाओं से बचाने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं।
यदि बच्चों की एक नई पीढ़ी, आधुनिक शिक्षा के माध्यम से यह मानने के लिए तैयार हो जाती है कि खनन उनके विकास के लिए अच्छा है, तो इससे खनन करने वाली कंपनियों को उन संसाधनों पर कब्ज़ा करने में मदद मिल सकती है, इसीलिए वे चाहते हैं कि इन बच्चों को आधुनिक शिक्षा प्रदान करके, आधुनिक विकास का गुलाम बनाया जाये।
इसकी कीमत हमारे समाज को जंगलों को नष्ट करते हुए चुकानी होगी। वे जंगल जिन्हें, आदिवासी समुदायों ने अपने पारंपरिक ज्ञान, जीवन जीने के तौर-तरीकों, भाषाओं और मान्यताओं के माध्यम से सदियों से सहेज कर पोषित एवं संरक्षित किया है। ये फैक्ट्री स्कूल आदिवासियों की विशिष्ट और जीवंत पहचान को नष्ट करने का जोखिम रखते हैं।
आदिवासियों के अधिकारों का हनन
भारतीय संविधान के तहत आदिवासियों को "अपनी पसंद के शैक्षिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासित" करने और अपनी मातृभाषा में सीखने का अधिकार है।
अपितु व्यवहार में, इन अधिकारों का तेजी से हनन किया जा रहा है। समस्त भारत में, तेज़ी से गाँव के स्कूल बंद हो रहे हैं और परिवारों के पास अपने बच्चों को आवासीय विद्यालयों में भेजने के अलावा बहुत कम विकल्प मौजूद हैं। इन आवासीय विद्यालयों में उनसे नहीं पूछा जाता है कि उनके बच्चों को क्या, कैसे और किसके द्वारा पढ़ाया जाए, उनपर आधुनिक शिक्षा को जबरन थोपा जाता है।
आदिवसीय शिक्षा
भारत और दुनिया भर में, ऐसे कई शैक्षिक परियोजनाओं के उदाहरण मौजूद है, जहाँ आदिवासी समुदायों द्वारा उनके बच्चों को उनकी संस्कृति, पारंपरिक ज्ञान, और मान्यताओं का सम्मान करते हुए समग्र रूप से पनपने का अवसर प्रदान किया जाता है।
प्रत्येक आदिवासी बच्चे को अपनी भाषाओं में, उनकी ज़मीन पर और उनकी संस्कृति के संबंध में एक पाठ्यक्रम के साथ शिक्षा प्राप्त का अवसर मिलना चाहिए।
आदिवसीय शिक्षा का अधिकार आदिवासियों के नियंत्रण में देने के अभियान में हमारे साथ शामिल होने के लिए हमसे जुड़िये।